ईरान पर अमरीकी पाबंदियों का सिलसिला एक बार फिर से शुरू हो गया है.
अमरीका विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक ताक़त तो है ही दूसरी तरफ़ उसकी मुद्रा डॉलर की बुनियाद पर दुनिया का 80 फ़ीसदी कारोबार और लेनदेन भी होता है. वह विश्व की एक मात्र राजनीतिक महाशक्ति भी है.
जिस दिन अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने ईरान के साथ हुए परमाणु क़रार से बाहर निकलने के फ़ैसले पर दस्तख़त किए तब से ईरान के नेता और अधिकारी लगातार कहते आ रहे हैं कि उनके ख़िलाफ़ प्रतिबंध को रोके जाने के उपाय हैं और परमाणु क़रार अमरीका के बगैर भी जारी रहेगा.
लेकिन इतनी बात तो साफ़ लग रही है कि ईरानी अधिकारियों की गुहार से काम नहीं चलेगा. ईरान पर लगी आर्थिक पाबंदियों के असर को कोई कम कर सकता है तो वो है यूरोपीय संघ.
हालांकि ये सवाल भी अपनी जगह वाजिब है कि अमरीका के ख़िलाफ़ जाकर यूरोप आख़िरकार क्यों इस परमाणु क़रार को बचाने की कोशिश करेगा?
ईरान का परमाणु क़रार
ईरान के ख़िलाफ़ अमरीकी पाबंदियां लागू रहीं तो यूरोपीय देश ईरान के साथ कैसे सियासी रिश्ते रखेंगे और तेहरान के हुक्मरानों को लेकर उनका क्या रुख़ होगा?
परमाणु समझौते को लेकर ईरान और '5+1 समूह' (संयुक्त राष्ट्र संघ के पांच स्थायी सदस्य और जर्मनी) या यूरोप के नज़रिये से '3+3 समूह' (तीन यूरोपीय देश जैसे ब्रिटेन, फ़्रांस और जर्मनी और सुरक्षा परिषद के तीन ग़ैरयूरोपीय सदस्य जैसे अमरीका, रूस और चीन) के बीच पिछले कुछ सालों से रुक-रुक कर फिर बाद में कुछ महीनों के लिए सघन रूप से लगातार चलने वाली वार्ता इस ओर संकेत करती है कि यूरोप के लिए ये मुद्दा बेहद ख़ास है.
अब इस समय जर्मनी, फ़्रांस और ब्रिटेन इस कोशिश में हैं कि जो गया सो गया, अब जो भी सामने है, इसको आगे बढ़ाया जाए.
आज यूरोप के सामने जो संकट साफ़ तौर पर दिख रहे हैं और जिनकी आहट सुनी जा रही है, उनसे बाहर निकलने का रास्ता शायद ईरान ही है.
आज से लगभग 70 साल से भी अधिक पहले की बात है.
द्वितीय विश्व युद्ध ख़त्म होने के बाद एक बर्बाद और तबाह यूरोप ज़मींदोज़ पड़ा था तो उस वक़्त यूरोपीय देशों के राजनेताओं ने दोबारा अपने क़दमों पर खड़ा होने के लिए कोयले और लोहे से संबंधित एक संगठन की बुनियाद डाली.
रोम समझौते पर हस्ताक्षर के कुछ ही दिनों बाद यूरोप युद्ध के कारण अपनी अस्तव्यस्त अर्थव्यवस्था को ज़िंदा कर सका.
एक तरह से इतिहास में पहली बार यूरोपीय साझा बाज़ार की नींव पड़ी. यूरोप में शांति और स्थिरता को केवल उस की आर्थिक उन्नति ने ही बहाल किया.
फिर कुछ सालों के बाद जब विश्व पर शीतयुद्ध के बादल मंडराने लगे और विश्व दो महाशक्तियों के बीच दो ध्रुवों में बंट चुका था तो एक बार फिर यूरोप ने अतीत के अनुभवों से सीखते हुए इस बात पर गौर किया कि यूरोप महाद्वीप के छोटे-छोटे देश केवल इत्तेहाद या परिसंघ के ही साये तले विश्व राजनीति के आकाश में अपनी भूमिका निभा सकते हैं.
आख़िरकार यूरोप वालों की कोशिश रंग लाई और साल 1993 में विधिवत रूप से विश्व राजनीतिक पटल पर यूरोपीय संघ का उदय हुआ, और उसके छह साल बाद यूरोपीय संघ ने अपनी एकल मुद्रा 'यूरो' भी जारी कर दी.
घिरा हुआ यूनियन
अब अपने जन्म के 25 साल बाद यूरोपीय संघ कई चुनौतियों और बुनियादी परेशानियों से घिरा हुआ है और इनमें से कोई भी एक परेशानी या चुनौती इसके अस्तित्व को ख़तरे में डाल सकती है.
इस समय यूरोप विश्व की तीन बड़ी आर्थिक शक्तियों में से एक है लेकिन इसकी हालत बहुत अस्थिर है.
एक दशक पहले आए आर्थिक भूकंप ने यूरोप के कुछ देशों को दीवालिया होने की कगार पर खड़ा कर दिया था.
स्पेन, पुर्तगाल और इटली ने तो जैसे तैसे ख़ुद को इससे निकाल लिया लेकिन यूनान में संकट और अधिक गहरा गया और लोग सड़कों पर उतर आए, जनता के प्रतिरोध में जानें भी गईं.
अभी यूरोप धीरे-धीरे अपने संकट से उबर ही रहा था कि एक ऐसी आफ़त उसके सामने आ खड़ी हुई जिसकी किसी राजनीतिक गुरु या पंडित ने कल्पना भी नहीं की थी.
ये आफ़त थी, राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के व्हाइट हाउस में यूरोप के ख़िलाफ़ अमरीका की कारोबारी लड़ाई की घोषणा. जैसे किसी ने घात लगा कर यूरोपीय संघ के अर्थिक शरीर पर आक्रमण कर दिया हो.
अमरीका विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक ताक़त तो है ही दूसरी तरफ़ उसकी मुद्रा डॉलर की बुनियाद पर दुनिया का 80 फ़ीसदी कारोबार और लेनदेन भी होता है. वह विश्व की एक मात्र राजनीतिक महाशक्ति भी है.
जिस दिन अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने ईरान के साथ हुए परमाणु क़रार से बाहर निकलने के फ़ैसले पर दस्तख़त किए तब से ईरान के नेता और अधिकारी लगातार कहते आ रहे हैं कि उनके ख़िलाफ़ प्रतिबंध को रोके जाने के उपाय हैं और परमाणु क़रार अमरीका के बगैर भी जारी रहेगा.
लेकिन इतनी बात तो साफ़ लग रही है कि ईरानी अधिकारियों की गुहार से काम नहीं चलेगा. ईरान पर लगी आर्थिक पाबंदियों के असर को कोई कम कर सकता है तो वो है यूरोपीय संघ.
हालांकि ये सवाल भी अपनी जगह वाजिब है कि अमरीका के ख़िलाफ़ जाकर यूरोप आख़िरकार क्यों इस परमाणु क़रार को बचाने की कोशिश करेगा?
ईरान का परमाणु क़रार
ईरान के ख़िलाफ़ अमरीकी पाबंदियां लागू रहीं तो यूरोपीय देश ईरान के साथ कैसे सियासी रिश्ते रखेंगे और तेहरान के हुक्मरानों को लेकर उनका क्या रुख़ होगा?
परमाणु समझौते को लेकर ईरान और '5+1 समूह' (संयुक्त राष्ट्र संघ के पांच स्थायी सदस्य और जर्मनी) या यूरोप के नज़रिये से '3+3 समूह' (तीन यूरोपीय देश जैसे ब्रिटेन, फ़्रांस और जर्मनी और सुरक्षा परिषद के तीन ग़ैरयूरोपीय सदस्य जैसे अमरीका, रूस और चीन) के बीच पिछले कुछ सालों से रुक-रुक कर फिर बाद में कुछ महीनों के लिए सघन रूप से लगातार चलने वाली वार्ता इस ओर संकेत करती है कि यूरोप के लिए ये मुद्दा बेहद ख़ास है.
अब इस समय जर्मनी, फ़्रांस और ब्रिटेन इस कोशिश में हैं कि जो गया सो गया, अब जो भी सामने है, इसको आगे बढ़ाया जाए.
आज यूरोप के सामने जो संकट साफ़ तौर पर दिख रहे हैं और जिनकी आहट सुनी जा रही है, उनसे बाहर निकलने का रास्ता शायद ईरान ही है.
आज से लगभग 70 साल से भी अधिक पहले की बात है.
द्वितीय विश्व युद्ध ख़त्म होने के बाद एक बर्बाद और तबाह यूरोप ज़मींदोज़ पड़ा था तो उस वक़्त यूरोपीय देशों के राजनेताओं ने दोबारा अपने क़दमों पर खड़ा होने के लिए कोयले और लोहे से संबंधित एक संगठन की बुनियाद डाली.
रोम समझौते पर हस्ताक्षर के कुछ ही दिनों बाद यूरोप युद्ध के कारण अपनी अस्तव्यस्त अर्थव्यवस्था को ज़िंदा कर सका.
एक तरह से इतिहास में पहली बार यूरोपीय साझा बाज़ार की नींव पड़ी. यूरोप में शांति और स्थिरता को केवल उस की आर्थिक उन्नति ने ही बहाल किया.
फिर कुछ सालों के बाद जब विश्व पर शीतयुद्ध के बादल मंडराने लगे और विश्व दो महाशक्तियों के बीच दो ध्रुवों में बंट चुका था तो एक बार फिर यूरोप ने अतीत के अनुभवों से सीखते हुए इस बात पर गौर किया कि यूरोप महाद्वीप के छोटे-छोटे देश केवल इत्तेहाद या परिसंघ के ही साये तले विश्व राजनीति के आकाश में अपनी भूमिका निभा सकते हैं.
आख़िरकार यूरोप वालों की कोशिश रंग लाई और साल 1993 में विधिवत रूप से विश्व राजनीतिक पटल पर यूरोपीय संघ का उदय हुआ, और उसके छह साल बाद यूरोपीय संघ ने अपनी एकल मुद्रा 'यूरो' भी जारी कर दी.
घिरा हुआ यूनियन
अब अपने जन्म के 25 साल बाद यूरोपीय संघ कई चुनौतियों और बुनियादी परेशानियों से घिरा हुआ है और इनमें से कोई भी एक परेशानी या चुनौती इसके अस्तित्व को ख़तरे में डाल सकती है.
इस समय यूरोप विश्व की तीन बड़ी आर्थिक शक्तियों में से एक है लेकिन इसकी हालत बहुत अस्थिर है.
एक दशक पहले आए आर्थिक भूकंप ने यूरोप के कुछ देशों को दीवालिया होने की कगार पर खड़ा कर दिया था.
स्पेन, पुर्तगाल और इटली ने तो जैसे तैसे ख़ुद को इससे निकाल लिया लेकिन यूनान में संकट और अधिक गहरा गया और लोग सड़कों पर उतर आए, जनता के प्रतिरोध में जानें भी गईं.
अभी यूरोप धीरे-धीरे अपने संकट से उबर ही रहा था कि एक ऐसी आफ़त उसके सामने आ खड़ी हुई जिसकी किसी राजनीतिक गुरु या पंडित ने कल्पना भी नहीं की थी.
ये आफ़त थी, राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के व्हाइट हाउस में यूरोप के ख़िलाफ़ अमरीका की कारोबारी लड़ाई की घोषणा. जैसे किसी ने घात लगा कर यूरोपीय संघ के अर्थिक शरीर पर आक्रमण कर दिया हो.
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